Friday, November 26, 2010

धर्मांधता के खिलाफ सिनेमाई हस्तक्षेप

सुप्रसिद्ध भारतीय फिल्‍मकार गौतम घोष की नई फिल्‍म मोनेर मानुष (द क्‍वेस्‍ट) धर्मांधता के खिलाफ एक सशक्‍त सिनेमाई हस्‍तक्षेप है। भारत के 41वें अंतरराष्‍ट्रीय फिल्‍म समारोह के प्रतियोगिता खंड में इसे प्रदर्शित किया गया है। यह फिल्‍म भारतीय पैनोरमा खंड की भी एक विशिष्‍ट कृति है। भारत और बांगलादेश में एक साथ 3 दिसम्‍बर 2010 को रिलीज किया जा रहा है। इसमें दोनों देशों के कलाकारों ने काम किया है। 1952 के बाद पहली बार ऐसा होने जा रहा है।
ज्ञानपीठ पुरस्‍कार विजेता बांगला लेखक और साहित्‍य अकादमी के अध्‍यक्ष सुनील गंगोपाध्‍याय की कहानी पर आधारित यह फिल्‍म उस सूफी संत लालन फकीर के बारे में है, जिन्‍होंने हिन्‍दुओं और मुसलमानों की धार्मिक कट्टरता का जवाब प्रेम और करूणा की एक नयी मानवीय परंपरा को बनाकर दिया। फिल्‍म में पहले से बनी बनायी कोई कहानी नहीं है। 19वीं सदी में घटित बंगाल के नव जागरण की पृष्‍ठभूमि में फिल्‍म शहरी बौद्धिकता और देशज ज्ञान की बहस का सिनेमाई आख्‍यान रचती है। गुरूदेव रवीन्‍द्रनाथ ठाकुर के बड़े भाई और अपने जमाने के चर्चित चित्रकार ज्‍योतिन्‍द्र नाथ ठाकुर लालन फकीर को अपने घर आमंत्रित करते हैं, यह 1889 का अविभाजित बंगाल है और जीवन एवं जगत के बारे में कई सवालों पर बातचीत करते हैं। लालन फकीर के जीवन को फ्लैश बैक में देखते हुये हम एक विस्‍मयकारी देशकाल की यात्रा करते हैं। जीवन के अधिकतर जटिल सवालों के जवाब फिल्‍म में विलक्षण संगीत के माध्‍यम से दिए गए हैं। इस प्रकार फिल्‍म का गीत संगीत, फिल्‍म की पटकथा और संवादों के अंग हैं। यह फिल्‍म जीवन और समय के बारे में एक अद्भुत संगीतमय आख्‍यान है। खास बात यह है कि 19वीं सदी के अंतिम दिनों के बंगाल का देशकाल जिस जीवंतता के साथ प्रस्‍तुत होता है, उसे देखना एक दुर्लभ अनुभव है।
बंगाल के एक निर्धन हिन्‍दू परिवार में जन्‍मे लालन फकीर को दूसरा जीवन मु‍स्लिम परिवार में मिलता है। बाउल संगीत की परंपरा उन्‍हें सूफी दर्शन से जोड़ती है। उन्‍होंने तब के अविभाजित बंगाल में हिन्‍दू और मुस्लिम धर्मांधता के खिलाफ शांति, करूणा एवं सह-अस्तित्‍व की नई परंपरा शुरू की। जिसकी जरूरत आज पहले से कहीं अधिक है। नदी, जंगल, खेत, आसमान, हवा, आग, पानी यानी प्रकृति मनुष्‍य के इतने करीब सिनेमा में बहुत कम देखी गई है। गौतम घोष का कैमरा एक तिनके से लेकर पानी की बूंद और हवा की सरसराहट को भी बड़े सलीके से दृश्‍यों में बदलता है। उन्‍होंने लगभग लुप्‍त हो चुके लालन फकीर के गीतों और धुनों को पहली बार इतनी मेहनत से पुनर्जीवित किया है। बांगला देश के सूफी गायक फरीदा परवीन और लतीफ शाह ने अपनी गैर-व्‍यावसायिक आवाजों से वास्‍तविक प्रभाव पैदा किया है। गौतम घोष को बांगलादेश के कुश्तिया में 85 वर्षीय फकीर अब्‍दुल करीम खान ने लालन के संगीत के खजाने के बारे बताया था।


फिल्‍म में हम साधारण लोगों की करिश्‍माई छवियां देखते हैं। जहां जीवन अपनी सहजता में अद्भुत कलात्‍मक और दार्शनिक ऊंचाई पर पहुंचता है। एक स्‍त्री जिसका प्रेमी नपुंसक हो चुका है, अपनी शारीरिक कामना के आवेग में लालन फकीर के पास जाती है और निराश होकर लौट जाती है। आश्‍चर्य है कि अपने एक सहयोगी की उत्‍कट देहाकांक्षा को पूरा करने के लिए लालन उसी स्‍त्री से अनुरोध करते हैं। फिल्‍म स्‍त्री पुरूष संबंधों में प्रेम, सेक्‍स, समर्पण और शरीर से जुड़े जटिल सवालों का आसान जवाब गानों के रूप में सामने रखती है। धर्म, समाज, परिवार और रिश्‍तों की दुनिया में लालन फकीर का संगीत किसी आध्‍यात्मिक ऊंचाई के बदले दिल की धड़कन की तरह मौजूद है। गौतम घोष की करिश्‍माई सिनेमाटोग्राफी प्रकृति और मनुष्‍य के रिश्‍तों को दिन रात के बदलते काल चक्र के पर्दे पर खूबसूरती से उकेरती है। लालन फकीर की भूमिका में बांगला फिल्‍मों के सुपर स्‍टार प्रसेनजीत चटर्जी का अभिनय जादुई असर पैदा करता है। उनकी आंखें और उनका चेहरा बिना संवाद के दृश्‍यों में बहुत कुछ कहता रहता है।

2 comments:

  1. अजित जी, आपके द्वारा वर्णित गोवा फिल्म फेस्टिवल ने जहां एक ओर इस बात का अहसास कराया कि मैंने फेस्टिवल में न पहुंच कर क्या-क्या मिस किया, वहीं आपके शब्दों के साथ फिल्म फेस्टिवल का आनन्द भी उठा लिया। सचमुच,फिल्मों में कथा की सार्थकता बहुत मायने रखती है।

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  2. आपकी मोनेर मानुष की व्याख्या ने झंकृत कर दिया सर ...आज सच में ज़रूरत है ऐसी फिल्मों की...जो धर्मान्धता के विरुद्ध प्रेम और इंसानियत की एक नई राह दिखाए । अदभूत लेखन ।

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