Friday, November 26, 2010

धर्मांधता के खिलाफ सिनेमाई हस्तक्षेप

सुप्रसिद्ध भारतीय फिल्‍मकार गौतम घोष की नई फिल्‍म मोनेर मानुष (द क्‍वेस्‍ट) धर्मांधता के खिलाफ एक सशक्‍त सिनेमाई हस्‍तक्षेप है। भारत के 41वें अंतरराष्‍ट्रीय फिल्‍म समारोह के प्रतियोगिता खंड में इसे प्रदर्शित किया गया है। यह फिल्‍म भारतीय पैनोरमा खंड की भी एक विशिष्‍ट कृति है। भारत और बांगलादेश में एक साथ 3 दिसम्‍बर 2010 को रिलीज किया जा रहा है। इसमें दोनों देशों के कलाकारों ने काम किया है। 1952 के बाद पहली बार ऐसा होने जा रहा है।
ज्ञानपीठ पुरस्‍कार विजेता बांगला लेखक और साहित्‍य अकादमी के अध्‍यक्ष सुनील गंगोपाध्‍याय की कहानी पर आधारित यह फिल्‍म उस सूफी संत लालन फकीर के बारे में है, जिन्‍होंने हिन्‍दुओं और मुसलमानों की धार्मिक कट्टरता का जवाब प्रेम और करूणा की एक नयी मानवीय परंपरा को बनाकर दिया। फिल्‍म में पहले से बनी बनायी कोई कहानी नहीं है। 19वीं सदी में घटित बंगाल के नव जागरण की पृष्‍ठभूमि में फिल्‍म शहरी बौद्धिकता और देशज ज्ञान की बहस का सिनेमाई आख्‍यान रचती है। गुरूदेव रवीन्‍द्रनाथ ठाकुर के बड़े भाई और अपने जमाने के चर्चित चित्रकार ज्‍योतिन्‍द्र नाथ ठाकुर लालन फकीर को अपने घर आमंत्रित करते हैं, यह 1889 का अविभाजित बंगाल है और जीवन एवं जगत के बारे में कई सवालों पर बातचीत करते हैं। लालन फकीर के जीवन को फ्लैश बैक में देखते हुये हम एक विस्‍मयकारी देशकाल की यात्रा करते हैं। जीवन के अधिकतर जटिल सवालों के जवाब फिल्‍म में विलक्षण संगीत के माध्‍यम से दिए गए हैं। इस प्रकार फिल्‍म का गीत संगीत, फिल्‍म की पटकथा और संवादों के अंग हैं। यह फिल्‍म जीवन और समय के बारे में एक अद्भुत संगीतमय आख्‍यान है। खास बात यह है कि 19वीं सदी के अंतिम दिनों के बंगाल का देशकाल जिस जीवंतता के साथ प्रस्‍तुत होता है, उसे देखना एक दुर्लभ अनुभव है।
बंगाल के एक निर्धन हिन्‍दू परिवार में जन्‍मे लालन फकीर को दूसरा जीवन मु‍स्लिम परिवार में मिलता है। बाउल संगीत की परंपरा उन्‍हें सूफी दर्शन से जोड़ती है। उन्‍होंने तब के अविभाजित बंगाल में हिन्‍दू और मुस्लिम धर्मांधता के खिलाफ शांति, करूणा एवं सह-अस्तित्‍व की नई परंपरा शुरू की। जिसकी जरूरत आज पहले से कहीं अधिक है। नदी, जंगल, खेत, आसमान, हवा, आग, पानी यानी प्रकृति मनुष्‍य के इतने करीब सिनेमा में बहुत कम देखी गई है। गौतम घोष का कैमरा एक तिनके से लेकर पानी की बूंद और हवा की सरसराहट को भी बड़े सलीके से दृश्‍यों में बदलता है। उन्‍होंने लगभग लुप्‍त हो चुके लालन फकीर के गीतों और धुनों को पहली बार इतनी मेहनत से पुनर्जीवित किया है। बांगला देश के सूफी गायक फरीदा परवीन और लतीफ शाह ने अपनी गैर-व्‍यावसायिक आवाजों से वास्‍तविक प्रभाव पैदा किया है। गौतम घोष को बांगलादेश के कुश्तिया में 85 वर्षीय फकीर अब्‍दुल करीम खान ने लालन के संगीत के खजाने के बारे बताया था।


फिल्‍म में हम साधारण लोगों की करिश्‍माई छवियां देखते हैं। जहां जीवन अपनी सहजता में अद्भुत कलात्‍मक और दार्शनिक ऊंचाई पर पहुंचता है। एक स्‍त्री जिसका प्रेमी नपुंसक हो चुका है, अपनी शारीरिक कामना के आवेग में लालन फकीर के पास जाती है और निराश होकर लौट जाती है। आश्‍चर्य है कि अपने एक सहयोगी की उत्‍कट देहाकांक्षा को पूरा करने के लिए लालन उसी स्‍त्री से अनुरोध करते हैं। फिल्‍म स्‍त्री पुरूष संबंधों में प्रेम, सेक्‍स, समर्पण और शरीर से जुड़े जटिल सवालों का आसान जवाब गानों के रूप में सामने रखती है। धर्म, समाज, परिवार और रिश्‍तों की दुनिया में लालन फकीर का संगीत किसी आध्‍यात्मिक ऊंचाई के बदले दिल की धड़कन की तरह मौजूद है। गौतम घोष की करिश्‍माई सिनेमाटोग्राफी प्रकृति और मनुष्‍य के रिश्‍तों को दिन रात के बदलते काल चक्र के पर्दे पर खूबसूरती से उकेरती है। लालन फकीर की भूमिका में बांगला फिल्‍मों के सुपर स्‍टार प्रसेनजीत चटर्जी का अभिनय जादुई असर पैदा करता है। उनकी आंखें और उनका चेहरा बिना संवाद के दृश्‍यों में बहुत कुछ कहता रहता है।

Thursday, November 25, 2010

विश्‍व सिनेमा में स्त्रियों का नया अवतार : गोवा से

भारत के 41वें अंतरराष्‍ट्रीय फिल्‍म समारोह में विश्‍व सिनेमा खंड में दिखाई जा रही अधिकतर फिल्‍मों में स्त्रियों का नया अवतार चकित कर देने वाला है। यह संयोग नहीं है कि ईरान, जापान और चीन से लेकर स्‍वीडन, पौलेंड, फ्रांस और जर्मनी तक की फिल्‍मों में हमें जो स्त्रियां दिखाई दे रही हैं, उनके सामने निजी सुखों से अधिक सामाजिक अस्मिता की चुनौती ज्‍यादा है। इन फिल्‍मों में इस सामाजिकता को नये ढंग से अंतरंग मानवीय रिश्‍तों के ताने-बाने से बुना गया है। मिसाल के तौर पर हम यहां दो फिल्‍मों की चर्चा करना चाहेंगे। स्‍वीडन की युवा फिल्‍मकार लिज़ा लैंजसेत की फिल्‍म प्‍योर (शुद्ध) की 18 वर्षीय कैटरीना एक अस्‍त-व्‍यस्‍त जिंदगी जीते हुए मोज़ार्ट संगीत के सहारे अपने जीवन को फिर से पटरी पर लाने की कोशिश कर रही है। दूसरी ओर ईरानी फिल्‍म इराक, इवनिंग ऑफ द टेंथ डे (निर्देशक – मोज़तबा राइ) की डॉक्‍टर मरियम सिराजी बचपन में अपनी बिछ़ड़ी बहन की खोज करते हुए युद्धग्रस्‍त इराक में एक विस्‍मयकारी अनुभव का सामना करती है।

कैटरीना के जीवन में अपार दुख हैं। एक दिन शहर के भव्‍य संगीत सभागार में मोजार्ट कन्‍सर्ट सुनते हुए उसे लगता है कि यह संगीत ही एक दिन उसकी मुक्ति का माध्‍यम बनेगा। उसे किसी तरह वहां रिसेप्‍शनिस्‍ट की नौकरी मिल जाती है। प्रेम और स्‍पर्श की चाहत उसे मोजार्ट संगीत के एक सुपर स्‍टार एडम के करीब लाती है। वह उसे अपना फ्रेंड फिलास्‍फर और गाइड समझने लगती है लेकिन एडम की नजर उसकी आकर्षक देह पर है। उन्‍माद उतरने के बाद वह उसे दूर फेंक देता है। पहले से ही अपने ब्‍आय फ्रेंड को छोड़ चुकी कैटरीना रेलवे प्‍लेटफार्म, सार्वजनिक पार्क और बस अड्डों पर रातें बिताते हुए फिर से अपने जीवन का ताना-बाना बुनती है। वह महसूस करती है कि जो यातना उसने झेली वह उसका अतीत था। अब वह पहले की तरह निष्‍पाप और कुंवारी महसूस करती है। फिल्‍म के आखिरी फ्रेम में पूरे पर्दे पर उसके चेहरे के बदलते भावों का अंत एक रहस्‍यमयी मुस्‍कान में होता है। जो बिना कहे बहुत कुछ कह जाता है।

पिछले कुछ वर्षों से ईरानी फिल्‍मों में दुनिया भर के दर्शकों का ध्‍यान खींचा है। गोवा फिल्‍मोत्सव में ईरान की 10 फिल्‍मों का एक विशेष पैकेज प्रदर्शित किया जा रहा है। ‘इराक – इवनिंग ऑफ द टेंथ डे’ की नायिका मरियम सिराजी एक डॉक्‍टर है और रेडक्रास की ओर से युद्धग्रस्‍त इराक में घायल लोगों का उपचार करने एक मिशन पर जाती है। 20 साल पहले बमबारी में उसकी छोटी बहन एक सैनिक के हाथ लग गई थी जिससे मिलने के लिए उसकी मां तड़प रही है। एक लंबी और दिलचस्‍प यात्रा के बाद वह अपनी बहन को खोज निकालती है जिसे उस सैनिक ने अपने बेटी की तरह पाला है। दोनों बहनों के मिलन का एक विलक्षण दृश्‍य है जिसमें दोनों एक दूसरे की भाषा नहीं जानतीं। सिराज फारसी बोलती है और अरबी नहीं जानती जबकि उसकी बहन रहमान अरबी जानती है और फारसी का एक शब्‍द भी उसे नहीं मालूम। इराक और ईरान के बीच अमेरिका सेना के कब्‍जे वाले नो मैन्‍स लैंड के पास एक पारंपरिक शहर में डॉक्‍टर सिराज तरह-तरह के लोगों से मिलती हुई अपनी बहन तक पहुंची है। उसका प्रेमी डॉक्‍टर, उसकी मां को तेहरान से यहां लाने में सफल होता है। सद्दाम के पतन के बाद अमेरिकी सेना के कब्‍जे में हम जिस इराक को देखते हैं, वह कई तरह के संकटों से जूझ रहा है। कैमरा शहर की तंग गलियों, व्‍यस्‍त बाजारों, विशाल कब्रिस्‍तानों, धूल से भरी सड़कों से होता हुआ इराकी लोगों के दैनिक जीवन को जिस जीवंतता के साथ हमें दिखाता है, वह एक नया सौंदर्य-शास्‍त्र रचना हुआ लगता है। क्‍या हम इसे विध्‍वंस का सौंदर्य-शास्‍त्र कहेंगे, जिसमें हर दृश्‍य को एक स्टिल फोटोग्राफ के रूप में देख सकते हैं। ईरान की सिराज और स्‍वीडन की कैटरीना जिस धैर्य, साहस और उत्‍साह का परिचय देती हैं, वह सिनेमा में स्‍त्री की बदलती छवियों का प्रतीक है।

सिनेमा का बाजार और बाजार में सिनेमा : गोवा से


भारत के 41वें अंतरराष्‍ट्रीय फिल्‍म समारोह में राष्‍ट्रीय फिल्‍म विकास निगम ने भारतीय फिल्‍मों का दुनिया भर में बाजार विकसित करने के लिए गोवा के मेरियट रिजार्ट में चार दिवसीय फिल्‍म बाजार इंडिया, 2010 का आयोजन किया है। इसमें पहली बार अंतरराष्‍ट्रीय फिल्‍मोत्‍सव में भारतीय फिल्‍मकारों की भागीदारी बढ़ाने के लिए गंभीर प्रयास किए जा रहे हैं। इसी क्रम में आज लोकार्नो अंतरराष्‍ट्रीय फिल्‍मोत्‍सव के निदेशक ओलिवर पेरे ने घोषणा की कि अगले वर्ष गोवा में होने वाले भारत के 42वें अंतरराष्‍ट्रीय फिल्‍म समारोह से लोकार्नो फिल्‍म समारोह का एक विशेष पैकेज प्रदर्शित किया जाएगा। उन्‍होंने दुनिया भर के फिल्‍मोत्‍सवों में भारतीय फिल्‍मों की कम होती भागीदारी पर चिंता व्‍यक्‍त की।
Director Godard
फिल्‍म बाजार में पहली बार अफ‍गानिस्‍तान, भूटान, बांग्‍लादेश, पाकिस्‍तान, श्रीलंका, नेपाल से आमंत्रित प्रोजेक्‍ट शामिल किए गए हैं। इसके अलावा अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस, नीदरलैंड से फिल्‍मों के कई जाने-माने खरीददार और एजेंट शामिल हो रहे हैं। एन एफ डी सी की प्रबंध निदेशक नीना लाठ गुप्‍ता का कहना है कि ‘हमारी मुख्‍य चिंता इस बात की है कि अधिक से अधिक भारतीय फिल्‍में विश्‍व के अंतरराष्‍ट्रीय फिल्‍मोत्‍सवों में शामिल हो सकें तथा दूसरे देशों के साथ फिल्‍म निर्माण के साझा प्रोजेक्‍ट शुरू किए जाएं। ‘
गोवा फिल्‍मोसव की सबसे खास बात यह है कि जिन फिल्‍म प्रेमियों को दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित फिल्‍म समारोह – कान फिल्‍मोत्‍सव (फ्रांस) – में जाने का अवसर नहीं मिला, उनके लिए वहां से चुनी हुई दस फिल्‍मों का एक विशेष खंड प्रदर्शित किया जा रहा है। इसमें फ्रेंच न्‍यू वेब के प्रमुख फिल्‍मकार ज्‍यां लुक गोदार की नई फिल्‍म ‘फिल्‍म सोशियलिज्‍म’ और मशहूर ईरानी फिल्‍मकार अब्‍बास किरस्‍तामी की पुरस्‍कृत फिल्‍म ‘सर्टीफाइड कॉपी’ शामिल हैं। अन्‍य फिल्‍मों में ‘आउटरेज’ (ताकेशी किटानो), वी आर व्‍हाट वी आर (सबना गज्‍जंती), यंग गर्ल्‍स इन ब्‍लैक (जीन पाल सिवेयरेक), रूट आइरिश (केन लोच), ए स्‍क्रीमिंग मैन (महामत सलेह हारून), द ट्री (जूली बर्तुसेली), द सिटी (क्रिस्‍टोफ होचस्‍टर) आदि।
भारत सरकार की सिनेमा से जुड़ी सभी संस्‍थाओं-एजेंसियों को अब लगने लगा है कि बाजार ही उनका अस्तित्‍व बचाए रख सकता है। फिल्‍म प्रभाग पिछले 60 वर्षों में बनी फिल्‍मों का वेबकास्‍ट जारी करने वाला है। प्रभाग द्वारा बनाई गई फिल्‍मों की मार्केटिंग के लिए एन एफ डी सी के साथ समझौता किया गया है। करीब 110 करोड़ की लागत से बनने वाले देश के अनूठे सिनेमा संग्रहालय बनाने का जिम्‍मा भी सरकार ने फिल्‍म प्रभाग को सौंपा है। फिल्‍म प्रभाग आज से शास्‍त्रीय नृत्‍य एवं नृत्‍य गुरुओं पर बनी फिल्‍मों का उत्‍सव शुरू कर रहा है। प्रभाग के महानिदेशक कुलदीप सिन्‍हा ने उम्‍मीद जताई है कि भारतीय सिनेमा के शताब्‍दी वर्ष 2013 में सिनेमा संग्रहालय फिल्‍म प्रेमियों के लिए उपलब्‍ध हो जाएगा। यह संग्रहालय मुंबई में बनाया जा रहा है।
भारत के अंतरराष्‍ट्रीय फिल्‍मोत्‍सवों में राष्‍ट्रीय फिल्‍म संग्रहालय (NFAI, Pune) पुणे की बड़ी भागीदारी होती है। इस बार कई फिल्‍मों को फिर से संरक्षित किया गया है। ऐसी 5 फिल्‍में गोवा में प्रदर्शित की जा रही हैं, जिनमें 1931 में बनी पी वी राव की मूक फिल्‍म ‘मार्तण्‍ड वर्मा’ और मृणाल सेन की ‘बाईशे श्रावण’ प्रमुख हैं। एन एफ ए आई ने पणजी की कला अकादमी में दादा साहेब फाल्‍के पुरस्‍कार से सम्‍मानित फिल्‍मी हस्तियों पर एक महत्‍वपूर्ण पोस्‍टर प्रदर्शनी भी लगार्इ है। इसमें पहली बार पुरस्‍कृत देविका रानी (1969) से लेकर इस बार पुरस्‍कृत डी रामानायडू (2009) तक की यात्रा को प्रदर्शित किया गया है। इन फिल्‍मी हस्तियों से जुड़ी फिल्‍मों के दुर्लभ पोस्‍टरों को देखना एक अलग तरह का अनुभव है। बाजार में इन पोस्‍टरों की कीमत अब काफी बढ़ गई है। इस प्रदर्शनी से पता चलता है कि सुप्रसिद्ध अभिनेता पृथ्‍वीराज कपूर को 1971 में दादा साहेब फाल्‍के अवार्ड दिया गया था। इसके अगले ही साल (1972) उनका निधन हो गया। यही घटना उनके बड़े बेटे राज कपूर के साथ घटी। जिन्‍हें 1987 में यह सम्‍मान मिला और अगले ही साल (1988) उनका निधन हो गया। इस प्रदर्शनी में सत्‍यजीत राय, अडूर गोपालकृष्‍णन, श्‍याम बेनेगल, अशोक कुमार, लता मंगेशकर आदि की फिल्‍मों के दुर्लभ पोस्‍टर लगाए गए हैं।
कन्‍फेडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्‍ट्रीज द्वारा आयोजित ‘द बिग पिक्‍चर वर्कशाप’ में इस बात पर काफी चर्चा हुई कि यूरोप अमेरिका की बजाय एशिया-अफ्रीका में भारतीय फिल्‍मों के बाजार की अधिक गुंजायश है। फिल्‍म निर्माण और वितरण से जुड़े अधिकतर लोगों का कहना है कि गोवा में इन देशों के प्रतिनिधियों को आमंत्रित किया जाना चाहिए।
गोवा में कुछ अविस्‍मरणीय कालजयी फिल्‍मों को बड़े परदे पर दोबारा देखने का आनंद भी अलग तरह का है। मशहूर अभिनेता अशोक कुमार की याद में बिमल राय की फिल्‍म ‘बंदिनी’ का विशेष प्रदर्शन किया गया। यह फिल्‍म सचिन देव बर्मन के विलक्षण संगीत के कारण भी याद की जाती है। इस अवसर पर अशोक कुमार की पोती अनुराधा पटेल और उनके भाई सुप्रसिद्ध गायक के बेटे किशोर कुमार के बेटे अमित कुमार ने ठीक ही कहा कि ‘दादामुनि भारत के पहले रैपस्‍टार थे। बीना राय की स्‍मृति में ‘अनारकली’ को देखना एक अलग अनुभव है।
गोवा फिल्‍मोत्‍सव में एक तरफ जहां यूरोप की आधुनिक फिल्‍में हैं तो वहीं दूसरी तरफ भारत की क्‍लासिक फिल्‍में भी हैं। आधुनिकता और परम्‍परा के बीच सिनेमा पर कई बहसें भी चल रही हैं। लाख टके का सवाल यह भी है कि इतने सारे भगीरथ प्रयासों के बावजूद हिन्‍दी सिनेमा की कोई विशेष पहचान विश्‍व–स्‍तर पर क्‍यों नहीं बन पा रही है। यहां दुनिया भर से आए फिल्‍मकारों से बात कीजिए, वे सत्‍यजीत राय, ऋत्विक घटक, मृणाल सेन से लेकर गौतम घोष तक की बातें तो करेंगे लेकिन हिन्‍दी फिल्‍मकारों के बारे में वे कुछ नहीं जानते।

'ईस्‍ट इज ईस्‍ट' के बाद अब 'वेस्‍ट इज वेस्‍ट' : गोवा से



भारत के 41वें अंतरराष्‍ट्रीय फिल्‍म समारोह की उद्घाटन फिल्‍म ‘वेस्‍ट इज वेस्‍ट’ इस समारोह की सर्वश्रेष्‍ठ फिल्‍मों में से एक है। यह फिल्‍म करीब एक दशक पहले बनी ‘ईस्‍ट इज ईस्‍ट’ का दूसरा भाग है, जिसने दुनिया भर में करीब 160 करोड़ रुपये का कारोबार किया था। यह फिल्‍म भारत के सु‍प्रसिद्ध अभिनेता ओमपुरी को विश्‍व के महान अभिनेताओं की पंक्ति में ला खड़ा करती है। ब्रिटिश फिल्‍म की निर्माता लैस्‍ली एडविन ने बताया कि लगभग 18 करोड़ रुपये की लागत वाली यह फिल्‍म ब्रिटेन और भारत में अगले वर्ष 25 फरवरी को एक साथ रिलीज की जाएगी। इसमें मुख्‍य भूमिकाएं ब्रिटिश कलाकारों के साथ ओमपुरी, इला अरुण, विजयराज, राज भंसाली आदि भारतीय कलाकारों ने निभाई है। उन्‍होंने कहा कि वे इस श्रंखला की तीसरी फिल्‍म ‘ईस्‍ट इज वेस्‍ट’ की पटकथा पर तेजी से काम कर रही हैं।
‘वेस्‍ट इज वेस्‍ट’ ब्रिटेन के मैनचेस्‍टर शहर में साल्‍फोर्ड इलाके में बसे एक पाकिस्‍तानी जहांगीर खान की कहानी है जो 35 साल पहले 1940 में अपनी पहली बीवी बशीरा और अपनी बेटियों को छोड़कर आ गया था। मैनचेस्‍टर में उसने एक आयरिश महिला से प्रेम विवाह किया जिससे उसके कई बेटे हुए। ‘ईस्‍ट इज ईस्‍ट’ 1975 के ब्रिटेन में पाकिस्‍तानी समाज के जिस सांस्‍कृतिक संकट पर खत्‍म होती है, वहीं से ‘वेस्‍ट इज वेस्‍ट’ शुरू होती है। ‘ईस्‍ट इज ईस्‍ट’ के अंतिम दृश्‍य में हमने देखा था कि जहांगीर खान अपनी पत्‍नी एली पर हाथ उठाता है, तभी उसका बड़ा बेटा उसका हाथ पकड़ लेता है। उसे अब लगता है कि पुराने सामंती मूल्‍यों के सहारे अब उसका परिवार नहीं चल सकता। ‘वेस्‍ट इज वेस्‍ट’ की शुरूआत जहांगीर खान की पाकिस्‍तान यात्रा से होती है। जहां वह 35 साल पहले अपने परिवार को छोड़ गया था। वह अपने दो बेटों को साथ लाता है और चाहता है कि दोनों पाकिस्‍तानी की तरह प्रशिक्षित हों। उसे पता चलता है कि इन पैंतीस सालों में सब कुछ वैसा ही नहीं है, जैसा वह छोड़ कर गया था। उसे बहुत ग्‍लानि होती है कि उसने अपने पहले परिवार की घोर उपेक्षा की है। इसी पारिवारिक संघर्ष पूरब और पश्चिम की संस्‍कृतियों की टकराहट और नए पुराने मूल्‍यों की रस्‍साकसी के बीच फिल्‍म आगे बढ़ती है। इस फिल्‍म की शूटिंग भारत के पंजाब प्रांत में हुई थी क्‍योंकि पाकिस्‍तान सरकार ने निर्माताओं को इसकी अनुमति नहीं दी थी।
‘वेस्‍ट इज वेस्‍ट’ में 1976 के एक पाकिस्‍तानी गांव के परिवेश की जीवंत तस्‍वीर पेश की गई है। माहौल को वास्‍तविक बनाने के लिए छोटी से छोटी बातों का ख्‍याल रखा गया है। यहां तक की जहांगीर खान का छोटा बेटा साजिद ‘पंजाब’ को ‘पुंजाब’ कहता है क्‍योंकि अंग्रेजी में उसने पीयूएनजेएबी पढ़ा है। फिल्‍म मानवीय रिश्‍तों की परतों के बीच सांस्‍कृतिक अस्मिता के संघर्ष को ताजगी के साथ प्रस्‍तुत करती है। पूरी फिल्‍म में कहीं भी शोर, हिंसा, एक्‍शन और भड़काऊ चमक-दमक नहीं है। रोब लेन और शंकर अहसान लॉय का अद्भुत सूफी संगीत दर्शकों को एक रूहानी दुनिया में ले जाता है। एक-एक दृश्‍य खूबसूरत चित्र की तरह है। दृश्‍यों के रंग चरित्रों के आपसी संवाद और उनके मनोभावों को दिखाते हैं। फिल्‍म में एक ऐसी दुनिया रची गई है जहां हर पात्र अपनी-अपनी जगह सही होते हुए भी एक अनवरत यातना सह रहा है। अंत में हम देखते हैं कि जब जहांगीर खान की दूसरी पत्‍नी एली उसे ढूंढते हुए ब्रिटेन से पाकिस्‍तान पहुंचती है और काफी उहापोह के बाद जहांगीर खान अपने बच्‍चों के साथ वापस ब्रिटेन लौटने का फैसला करता है तो वह कहता अपनी पहली पत्‍नी से कहता है ‘’मैंने जो जीवन चुना था, वह यह नहीं है।‘’

ओमपुरी वेस्‍ट इज वेस्‍ट के एक दृश्‍य में
‘वेस्‍ट इज वेस्‍ट’ में जहांगीर खान के केन्‍द्रीय चरित्र को ओमपुरी ने अपने अभिनय से अविस्‍मरणीय बना दिया है। लेस्‍ली एडविन ने फिल्‍म के प्रदर्शन के मौके पर ठीक ही कहा कि ‘’ओमपुरी विश्‍व के महान अभिनेताओं में से एक हैं। ‘’ उन्‍होंने एक पिता, दो पत्नियों के पति, पाकिस्‍तानी मुसलमान और ब्रिटिश नागरिक के रूपों को एक ही चरित्र में सुंदर तरीके से समायोजित किया है। उनके बचपन की जो दुनिया छूट गई है उसे वे अपने बच्‍चों के माध्‍यम से पाना चाहते हैं। लेकिन बच्‍चों के सामने आधुनिक ब्रिटेन और यूरोप है। फिल्‍म में संवादों से अधिक चरित्रों का मौन बोलता है। एक विलक्षण दृश्‍य में जहांगीर खान की पहली पत्‍नी बशीरा और दूसरी पत्‍नी एली का संवाद है। बशीरा अंग्रेजी नहीं जानती जबकि एली को पंजाबी नहीं आती। बशीरा पंजाबी बोलती है और एली अंग्रेजी में उसका जवाब देती है। यह दो स्त्रियों का अद्भुत संवाद है। जो दिल की धड़कनों की भाषा से एक दूसरे को समझने की कोशिश करती हैं। बीच-बीच में सूफी संत समय की व्‍याख्‍या करते रहते हैं। किशोर साजिद अपनी तरह से पाकिस्‍तानी गांव में एक नई और रोमांचक दुनिया से परिचित होता है।
फिल्‍म की निर्माता लेस्‍ली एडविन ने खचाखच भरे सभागार में हिंदी में दर्शकों से मुखातिब होकर सबको खुश कर दिया। उन्‍होंने हिंदी में कहा कि इस फिल्‍म समारोह में ‘वेस्‍ट इज वेस्‍ट’ के प्रदर्शन के मौके पर मैं इतनी खुश हूं कि मेरे पैर जमीन पर नहीं हैं।

दोस्तो के लिए

मैं आपकी दुनिया में वापस आ गया। अब मैं निरंतर आपको अपनी यायावरी के कुछ लम्हे यहां शेयर करुंगा. आपकी प्रतिक्रियाओं, सुझावो को इंतजार रहेगा..